[1]
जरा सोचो
‘जिसको जब ‘मौका’ मिले , ‘ हर घर को ‘रोशन’ किए जाना,
‘कोरोना’ कब किसके लिए ‘भूचाल’ ले आए, ‘कह नहीं सकते’ !
[2]
जरा सोचो
‘अब अपना घर ही ‘जेल’ सा लगने लगा, तो ‘मूर्ख प्राणी’ है,
‘तुझे ‘स्वर्ग’ की दरकार ही नहीं , ‘पिशाच’ रूप है तेरा’ !
[3]
जरा सोचो
‘हर घर एक ‘मंदिर’ है ‘प्रभु’ का गरिमामय होकर ‘ध्यान’ कीजिए,
‘दिल की लगी’ प्रभु से ‘लगा’ ली तो, ‘कारोना’ निश्चित ‘भाग’ जाएगा’ !
[4]
जरा सोचो
‘मन में ‘अनचाहा’ भर कर ‘जीते’ हो, ‘जी’ भर कर नहीं ‘जीते’,
‘किसी दिन ‘लुटिया’ डूब जाएगी, ‘हाथ मलते” रह जाओगे जनाब’ !
[5]
जरा सोचो
‘कुछ ऐसा ‘काम’ करो, ‘तारीफ’ और ‘इज्जत’ दोनों मिले,
‘यह ‘खामखा’ नहीं मिलते, ‘सत्कर्म’ की ‘पूंजी’ लगा’ !
[6]
जरा सोचो
‘खुशियों’ को तलाशना ही इंसान की ‘बदहाली’ की कहानी है,
‘जैसा ‘जीवन’ मिला ‘स्वीकारते’ चलो, ‘हर पल का ‘आनंद’ लो’ !
[7]
‘सर्वप्रिय इंसान’ कभी कोई ‘व्यभिचारी’ नहीं मिलता,
‘वही इंसान ‘हकीकत’ में ‘इंसान की श्रेणी’ में आता है ‘ !
‘नफरत’ की ऐसी ‘फितरत’ है ,
‘तुरंत ‘महसूस’ होती है सबको,
‘प्यार’ का सही ‘एहसास’ कराने में,
‘उम्र ‘खप’ जाती है हजूर’ !
”घाव’ खूब मिले परंतु ‘खून’ एक कतरा भी नहीं,
‘तुरंत समझ जाना ये ‘घाव’ किसी अपने ने ‘परोसे’ हैं’ !