Home ज़रा सोचो ‘सब कुछ झूठा , संसार का व्यवहार भी झूठा ‘-‘ संभल कर चलने की जरूरत है ‘ |

‘सब कुछ झूठा , संसार का व्यवहार भी झूठा ‘-‘ संभल कर चलने की जरूरत है ‘ |

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जरा सोचो
‘रास्ता’ न दिखाई दे तो ‘एक-एक कदम’ चलो,
‘ रास्ता’ भी मिल जाएगा, ‘ठोकरे’ खाने से बच जाओगे’ !

[2]

जरा सोचो
‘रिश्तों’ में ‘अपनापन’ अगर नहीं तो ‘आचं ‘आना स्वाभाविक है ,
‘हालात’ कुछ भी हों, ‘गुलाब’ की भांति ‘खिले’ रहना ही सदा अच्छा |

[3]

जरा सोचो
‘गजनी लुक’ दिखाने के लिए, हर माह ‘गंजा’ होता रहा,
‘बाप’ मरा तो ‘सिर मुंडवाने’ को मना कर दिया, ‘क्या’ कहें उसको ?

[4]

जरा सोचो
‘मुझे किसी की जरूरत नहीं ”सबको मेरी जरूरत है’,
‘ध्यान रखना’, ‘दोनों फिकरे’ ‘तबाह’ कर देंगे तुझे’ !

[5]

जरा सोचो
‘सभी ‘सुख’ के साथी हैं,’दुखी’ देखकर ‘खिसक’ जाते हैं,
‘परेशानी’ में साथ निभाना ही ‘मानव’ बनाता है हमें’ !
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 जरा सोचो
‘गिरे’ को उठाने का ‘भगीरथ प्रयास’ जारी रखो,
‘निराशा भरे उदगार’ सुनने बंद हो जाएंगे एक दिन’ !
[7]
 
 जरा सोचो
‘बुराई’ ढूंढन जब चला, हर कोई कहीं ना कहीं ‘डूबा’ ही मिला,
‘सदभाव’ की ‘धज्जियां’ उड़ती मिली, ‘कल्याण’ कैसे हो बता ?
[8]
जरा सोचो
‘वो’ हमारे हो कर भी ‘हमारे’ नहीं, अजब ‘जिंदगी’ है हमारी,
एहसास ‘अंतर्ध्यान’ है, ‘जिएं’ तो कैसे ‘जिएं’ , बताओ तो ?
[9]
जरा सोचो
‘ प्रेम ‘ इंसान को कभी ‘मुरझाने’ नहीं देता,
‘नफरत’ उसे कभी ‘खिलने’ नहीं देती’ !
[10]
जरा सोचो
‘ जब जगत ‘झूठा’ जगत का ‘व्यवहार झूठा’ सब कल्पित है ,
‘बुद्धिमान’ इसमें नहीं फंसते, ‘सत्य के सहचरी’ बने रहते हैं’ !
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