[1]
जरा सोचो
‘आशा का सूरज’ डूबने मत देना, ‘कुत्सित प्रयास’ मत करना,
‘अंधकार’ की इतनी ‘विसात’ कहां, जो आपके ‘घर’ आ आए !
[2]
जरा सोचो
‘विश्वास का पौधा’ दिल में उगा लिया, पौवारा हैं आपके,
‘अनचाही उलझनें’ स्वयं ही अपना ‘रास्ता’ बदल देंगी !
[3]
जरा सोचो
‘ चिंताएं ‘ इंसान को अंदर ही अंदर ‘ खा ‘ जाती हैं,
हम ‘सोचते’ हैं न जाने ‘क्या खा लिया’ ? बीमार हो गए !
[4]
जरा सोचो
‘पवित्र मन’ ही दूसरों के ‘गुण-दोष’ ,’सही’ देख पाते हैं,
मन ही ‘मलिन’ हो तो ‘दोषों’ के अलावा कुछ नहीं दिखता !
[5]
जरा सोचो
‘लगन’ हो तो आदमी ‘ सौ गुना ‘ काम कर लेगा,
‘परिश्रम’ से ‘जी’ चुराया तो, ‘चिथड़े’ उधड जाएंगे उसके !
[6]
जरा सोचो
‘पीछे’ मुड़-मुड़ कर ना ‘देख’, ‘पिछड़’ जाओगे ,’ पछताओगे’, ‘अग्रसर’ होकर जो ‘जांबाजी’ दिखाते हैं, ‘दुनियां’ उन्हीं की है !
[7]
जरा सोचो
‘सलाह’ सबको देते हो, खुद ‘सलाह’ सुनने से ‘कतराते’ हो,
‘सही सांचे’ में ढाल लिया होता, तो ‘कायाकल्प’ हो जाता !
[8]
जरा सोचो
‘अफवाहें’ बिना बताए ‘सबके घर’ तुरंत पहुंच जाती हैं, ‘वास्तविकता’ को समझने में, एडी चोटी का ‘जोर’ लगता है !
[9]
जरा सोचो
‘सफलता की चाबी’ ‘ठोकरें’ खा कर ही ‘नसीब’ होती है,
‘अन्य वस्तुएं’ ‘ठोकर’ लगते ही ‘छिन्न-भिन्न’ मिलती हैं !
[10]
जरा सोचो
‘जिन्होंने’ अनीति से ‘दौलत’ कमाई , हम उन्हीं के ‘गीत’ गाते हैं,
जो ‘सत्कर्म’ करके ‘जीवन’ जीते रहे,’यादों के जखीरे’ से गायब थे !