*शक्ति योग….*
गायत्री मंत्र के अंतर्गत *वरेण्य* शब्द आता है । *वरेण्य* कहते है , श्रेष्ठ को । संसार में जो भी श्रेष्ठ है उसका हमें वरण करना चाहिए।
इस संसार में सर्वश्रेष्ठ वस्तु है — * शक्ति।* शक्ति अथवा बल के बिना कुछ भी प्राप्त करना संभव नहीं ।
*”नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ”* यह आत्मा बलहीनों को प्राप्त नही होता । शक्ति के बगैर आत्मा की प्राप्ति तो दूर — सांसारिक वस्तु भी प्राप्त नहीं हो सकती ।
इसलिये गायत्री के *वरेण्य* शब्द में * शक्ति-योग* का निर्देश सन्निहित माना गया है । आध्यात्म विज्ञान के उपासना क्षेत्र में शक्ति को दुर्गा के रुप में पूजा जाता है । दुर्गा शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है ।
शक्ति उपासना का तात्पर्य है बल का संग्रह करना ; बल आठ प्रकार के है क्रमशः
1) विद्या बल
2) शरीर बल
3) धन बल
4) संगठन बल
5) गवण बल
6) प्रतिष्ठा बल
7) साहस बल
8) सत्य बल।
यह आठ बल अर्थात दुर्गा की आठ भुजाएँ । अर्थात शक्ति हमारे भीतर आठ अंगो मे बटी हुई है , इन सबके समन्वय से पूर्ण शक्ति बनती है ।
जिस व्यक्ति में इन आठ अंगो में से जितने अंश , जितनी अधिक मात्रा में मौजुद है , उतनी ही मात्रा में वह शक्तिशाली कहा जायेगा ।
शक्ति-योग का तात्पर्य है अपने अंदर अधिक से अधिक मात्रा में शक्तियों को धारण करना ।
शक्ति एक सम्पत्ति है । उसे जिस दिशा में चाहे , उधर ही लगाया जा सकता है । उचित है कि शक्ति का सदुपयोग ही किया जाय । उससे परोपकार , आत्म-कल्याण में खर्च किया जाय ।
दुर्गा – सप्तशती में तीन चरित्र है एक मधुकैटभ वध दूसरा महिषासुर वध और तीसरा शुंभ-निशुंभ वध ।
*मधुकैटभ का अर्थ है काम ।* *महिषासुर का अर्थ है क्रोध ।* * शुंभ-निशुंभ का अर्थ है लोभ – लालच ।*
माँ भगवती ने इन तीनो को तीन रूप धारण कर मारा है । *महासरस्वती* बन कर विष्णु को जगाती है और मधुकैटभ का वध कराती है । विष्णु का अर्थ है – ज्ञान और महासरस्वती विवेक की शक्ति है , वह सोये हुए ज्ञान को , सोये हुए विष्णु को जगा कर , अन्तःकरण जागृत कर विषय विकारों का वध कर देती है ।
“दूसरा शत्रु है क्रोध “। क्रोध ही महिषासुर है । शक्ति *महाकाली* का रूप ले कर क्रोध का वध कर देती है ।
तीसरा चरित्र है लोभ-लालच याने शुंभ-निशुंभ का वध । लोभ लालचो का वघ भगवती ने *महालक्ष्मी* का रूप लेकर किया । साथ में इनके गणों का वध भी एन्द्री , ब्राह्मी, वैष्णवी आदि शक्तियों द्वारा नाश कराया है ।
दुर्ग कहते है , “कठिन को”। दुर्गा उसे कहते है जो कठिनाई को दूर करे । देवताओं की श्रेष्ठ व्यक्तियों की सम्मिलित शक्ति ही दुर्गा है । छोटे-छोटे लोगों का समूह भी यदि एकत्रित हो जाय तो उसके द्वारा कठिन से कठिन प्रतीत होने वाले प्रयोजन आसानी से सिद्ध हो सकते है ।
देवी बलि से प्रसन्न होती है । “यहाँ बलि का अर्थ है त्याग ” न की मुक पशुओं का वध करना । जो शक्ति को प्राप्त करना चाहते है उसे अपने एश , आराम रूपी बकरे को और आलस्य रुपी भैसे को बलि चढाना होता है , प्रयत्न , परिश्रम , त्याग , साहस और सहिष्णुता के बल पर विजय श्री को प्राप्त करना होता है ।
श्रेष्ठ वही है जो मन से सज्जन है पर बाहर से सर्वांगपूर्ण शक्ति से युक्त है । इस लिए हमें शक्ति संचय के लिये निरंतर साधना करनी चाहिए ।
*’ ‘ मै व्यक्ति नहीं विचार हुँ । ”*
*—आचार्य श्रीराम शर्मा*