
एक बार बस से उतरते ही एक रिक्शा वाला बोल पड़ा , “बाबूजी कहाँ जाओगे ,आइये , बैठिए , जो भी जी में उचित लगे, दे देना” |—–उसके बात करने के सलीके को देख बिना कुछ बात करे मैं रिक्शा में बैठ गया | जैसे ही रिक्शा आगे बढ़ा ,” मेरी निगाह उसकी कमीज़ की एक झूलती बांह पर पड गयी” | वह तो मगन हो कर एक हाथ से रिक्शा पकड़े गुनगुनाता चला जा रहा था | मुझसे रहा नहीं गया और ‘ पूछ ही लिया उसके एक हाथ टूटने का कारण’” उसने बताया मैं बिहार का रहने वाला हूँ काम की तलाश मेंआया था , मेरी जल्दबाज़ी के कारण एक दिन ट्रेन दुर्घटना में मेराहाथ कट गया | अब भारी काम करने लायक मैं नहीं रहा इसलिए “रिक्शा चला कर घर का गुज़रा कर रहा हूँ” | बाबूजी , सब ऊपर वाला महरवान है, गुजारा हो ही जाता है | हर महीने 4-5 हज़ार रुपये घर भेज देता हूँ |
रिक्शा से उतर कर जो कुछ मैंने दिया ,उसने चुपचाप रख लिया और फिर गुन गुनाता हुआ चल दिया | अब “ मेरे दिल में उसकी मेहनत के प्रति इज्जत का भाव रहता है” |
जब सड़कों पर अच्छे खासे स्वस्थ लोगों को भीख मांगते और पॉकेट मारते देखता हूँ तो उस रिक्शा वाले की दरियादिली अनायास याद आ जाती है दुर्दिन तो कभी भी किसी के भी आ सकते हैं ,लेकिन हिम्मत रखना और “पुनः किसी भी प्रकार का श्रम करने में शर्म महसूस न करना” “गर्व की बात है “|
इत्तिफ़ाक से किसी की नौकरी छूट जाए , नया काम देर तक न मिले तो घर बैठ जाना , यह कहना कि “मैं तो अपने स्टेटस कि नौकरी ही करूंगा , नहीं तो नहीं “ कहना सरासर गलत है या नहीं ,” मिलते काम कि अवहेलना खुद से नाइंसाफी है” , इस प्रकार वह खुद को बड़ा निकम्मा बना बैठेगा |
निष्कर्ष
कर्म तो कर्म होता है , छीटा-बडा कुछ भी नहीं | तुम कुछ प्रारम्भ तो करो , परिश्रम का फल सदा मीठा होता है |