[1]
जरा सोचो
‘ जवानी ‘ आई तो ‘बचपन’ भूला, ‘ पत्नी ‘ आई तो ‘ मां- बाप ‘ को भूला,
‘अमीरी’ आई तो ‘गरीबी’ को भूला, अब ‘सब’- “बुढ़ापे” में याद आता है !
[2]
मेरी सोच
‘तनाव’ से दिल और दिमाग , ‘ दुख ‘ से फेफड़े , ‘ चिंताओं ‘ से पेट और ‘ गुस्सा ‘ करने से लीवर ,
सुचारू रूप से कार्य नहीं कर पाते ! हमारी ‘ भावनाओं ‘ को प्रभावित किए बिना नहीं रहते ! इनसे
निजात पाकर ही ‘ असली प्रसन्नता ‘ संभव है !
[3]
जरा सोचो
उसने कभी ‘दिल’ तो लगाया नहीं, परंतु ‘इश्क’ जरूर फरमाते रहे,
‘बेदिल’ का ‘ इश्क ‘ गहरे मौसम में भी , कभी ‘ बरसा ‘ नहीं करते !
उसने कभी ‘दिल’ तो लगाया नहीं, परंतु ‘इश्क’ जरूर फरमाते रहे,
‘बेदिल’ का ‘ इश्क ‘ गहरे मौसम में भी , कभी ‘ बरसा ‘ नहीं करते !
[4]
जरा सोचो
‘ संगत ‘ का असर पड़ता है , चाहे जब ‘ आजमा ‘ लेना,
‘फूलों के दरिया’ से गुजरोगे तो, ‘खुशबहार’ ही पाओगे खुद को !
‘ संगत ‘ का असर पड़ता है , चाहे जब ‘ आजमा ‘ लेना,
‘फूलों के दरिया’ से गुजरोगे तो, ‘खुशबहार’ ही पाओगे खुद को !
[5]
जरा सोचो
आपके ‘इश्के- एहसास’ में ‘हलचल’ मचा रखी है दिल में,
‘आपके सिवाय’ कुछ नजर नहीं आता, करें तो ‘क्या’ करें ?
आपके ‘इश्के- एहसास’ में ‘हलचल’ मचा रखी है दिल में,
‘आपके सिवाय’ कुछ नजर नहीं आता, करें तो ‘क्या’ करें ?
[6]
जरा सोचो
‘स्नेह’ जैसी चीज अब नहीं मिलती, सिर्फ ‘झूठा’ फसाना है,
सब एक दूसरे को ‘आजमाने’ में अपना ‘वक्त’ खराब करते हैं !
‘स्नेह’ जैसी चीज अब नहीं मिलती, सिर्फ ‘झूठा’ फसाना है,
सब एक दूसरे को ‘आजमाने’ में अपना ‘वक्त’ खराब करते हैं !
[7]
जरा सोचो
उसकी ‘जलवागिरी’ को किसी की ‘नजर’ ना लगे,
‘एहसास’ कुछ ऐसा जगा , ‘ चांद ‘ भी शरमा गया !
उसकी ‘जलवागिरी’ को किसी की ‘नजर’ ना लगे,
‘एहसास’ कुछ ऐसा जगा , ‘ चांद ‘ भी शरमा गया !
[8]
जरा सोचो
गुजरे ‘हसीन पलों’ को याद करके, हम ‘आंखें’ भिगो लेते हैं,
काश ! ‘ मिलकर ‘ साथ रहने का ‘ जमाना ‘ लौट आता !
गुजरे ‘हसीन पलों’ को याद करके, हम ‘आंखें’ भिगो लेते हैं,
काश ! ‘ मिलकर ‘ साथ रहने का ‘ जमाना ‘ लौट आता !
[9]
जरा सोचो
‘ मजारों ‘ पर कितनी भी ‘ चादर ‘ चढ़ा , ‘ लालची पेट ‘ ही भर पाएगा,
‘ठुठरते प्राणी’ हेतु कुछ अच्छा कर, दिल की ‘दुआओं’ से भर देगा तुझे !
‘ मजारों ‘ पर कितनी भी ‘ चादर ‘ चढ़ा , ‘ लालची पेट ‘ ही भर पाएगा,
‘ठुठरते प्राणी’ हेतु कुछ अच्छा कर, दिल की ‘दुआओं’ से भर देगा तुझे !
[10]
जरा सोचो
‘शांत’ मन, ‘प्रसन्न’ मन, समाज में ‘प्रफुल्लता के फूल’ खिलाता है,
‘व्यथित मन’, ‘व्याकुल मन’, अधीर होकर ‘अवांछित कर्म’ कर बैठता है !
‘शांत’ मन, ‘प्रसन्न’ मन, समाज में ‘प्रफुल्लता के फूल’ खिलाता है,
‘व्यथित मन’, ‘व्याकुल मन’, अधीर होकर ‘अवांछित कर्म’ कर बैठता है !
[11]
जरा सोचो
‘करीब’ आओ कि ‘दिल’ मचलता है, ‘तुम्हारी’ तलब है हमको,
हमें ‘करीबी’ मंजूर है, ‘नजरअंदाजी’ नहीं, इतनी ‘गुजारिश’ है !
‘करीब’ आओ कि ‘दिल’ मचलता है, ‘तुम्हारी’ तलब है हमको,
हमें ‘करीबी’ मंजूर है, ‘नजरअंदाजी’ नहीं, इतनी ‘गुजारिश’ है !