[1]
जरा सोचो
जरा – जरा सी बात पर ‘ऐंठन’ , ‘कठिन जीवन’ बना देगी ,
‘पत्ता’ पेड़ पर ‘हरा’ रहता है,’झड़ते’ ही उसका ‘जीवन’ खतम |
[2]
जरा सोचो
कई व्यक्ति दूर रहते भी ‘ नज़दीकियों ‘ का ‘अहसास’ करते हैं ,
शायद ‘स्नेह’ की ‘अनुभूति ‘, हर जगह ‘रंग’ बिखेर देती है |
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जारण सोचो
सभी को ‘प्रसन्न’ नहीं कर सकते ,’दुःख’ देने की कोशिश भी मत करो ,
‘स्नेह का तालमेल’ , ‘ उल्झि गुत्थियों ‘ को ‘सुलझा’ ही देती हैं |
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जरसोचो
‘उम्मीद की डाली ‘ को ‘सत्कर्म’ के पानी से ‘संचित’ करो ,
सर्वदा ‘प्रफुल्ल-चित्त’ प्राणी, ‘इंसानियत’ से जोड़े रक्खेगा |
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जरा सोचो
‘दुनियांदारी’ ने हमें ‘भुक्कड़’ बना कर छोड़ दिया है ,
‘वादे’ रोज़ भूल जाते हैं , ‘ जाहिल’ बन कर घूम रहे हैं |
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जरा सोचो
‘किस्मत’ के द्वार पर कभी ‘ताला’ शोभा नहीं देता ,
‘बड़ों का सम्मान’ झोलो भर देगा , ‘उदासी’ नहीं पसरेगी |
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जरा सोचो
‘उतावलापन’, गुस्सा , और ‘घ्रणा’, ‘जहर’ सारीखे हैं ,
जो इन्हें ‘ग्रहण[ करता है,’सुंदर जीवन’ जी नहीं पाता |
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जरा सोचो
‘मुंह में राम बगल में छुरी ‘, ‘मुखौटा राम का’ , ‘कर्म लंकेश के’ ,
अब ‘कंस’ ‘गीता का उपदेश’ देते हैं , ‘राम का स्वरूप’ नदारत है |
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जरा सोचों
‘क्रोध’ की कर्कसता – ‘वाणी की मधुरता’ सोख लेती है ,
‘कोमलता’ साथ छोड़ देती है , ‘दुर्गंध’ मिलती है चोरों तरफ |