आदरणीय श्री सत्य प्रकाश पारीक जी के सौजन्य से :-
:- बुजुर्ग आज एकाकीपन के सन्नाटे में हैं | नई पीढी अपना पेट भरने या धन कमाने की होड़ में घर से दूर , विदेशो तक में पडी है || बुजुर्गो के ज्ञान व अनुभव का कोई उपयोग नहीं हो रहा है लगभग सभी बुजुर्ग अपने खालीपन को अपनी निर्थकता को ढो रहे हैं | इन्हीं भावनाओं को व्यक्त करती अपनी एक कविता आपके विचारार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ :-
बरगद रोया —
बरगद रोया फूट फूट कर ,लख उनके उल्हास को
जब अपना घर छोड़ परिन्दे, जाने लगे प्रवास को |
कितना रस पीया धरती का, तब ऐसा आकार बना |
इतने जीव परिन्दो का घर, तब जाकर साकार बना |
मीठी मीठी गोल खिला कर, भूखो का आहार बना |
फिर भी क्यो नही दिल का रिश्ता, क्यो नही दिल का प्यार बना |
जो भी आया मिटा क्लान्ति, फिर निकला नयी तलाश को |
बरगद रोया फूट फूट कर, लख उनके उल्लास उल्लास को|
खुद ने सहे प्रहार मौसमी , उनको दिया सुखद आवास |
ऑधी झन्झा सब खुद झेले, उनको नही हुआ अहसास |
कितने आकर्षण आये, पर बरगद प्रण से टला नही |
कितनी ऑधी चली मगर, वो अपनी जड़ से हिला नही |
आग लगे ऐसे आकर्षण, ऐसे अंध प्रयास को |
बरगद रोया फूट फूट कर , लख उनके उल्लास को
अपना घर तो अपना घर है , जाने वाले पंछी सुन |
हर पल नजरो मे आयेगा, अपने मन की बाते सुन|
तूने छोड़ दिया तो क्या, अब नये मुसाफिर आयेगे |
जब तक छाव सलामत है , हम फिर से इसे बसायेगे|
कर्म मार्ग तो अग्नि पथ है, यह नही भोग विलास को |
बरगद रोया फूट फूट कर , लख उन के उल्लास को |