[1]
जरा सोचो
‘ पत्थर ‘ बन कर सभी की ‘राह’ ‘कठिन’ बना दोगे,
‘मोम’ बनकर जलते रहे तो, ‘राहें’ ‘सुगम’ हो जाएंगी !
[2]
जरा सोचो
‘हम’ तुम्हें ‘समझते’ ही रह गए ,’तुम’ दिल में घुस गए,
अब ना ‘दिन को चैन’ है, ना ‘आंखों’ में ‘निद्रा का सरूर’ !
[3]
जरा सोचो
तू, प्यार का सौदाई है , या प्यार का सागर , या कुछ और,
चाहे जिस ‘निगाह’ से देख, ‘औरत’ फितरत को ‘पहचान’ जाती है !
[4]
जरा सोचो
किसी से ‘उम्मीद’ मत करो, ‘उम्मीदें’ बहुत ‘दर्द’ देती हैं,
‘आशा रहित’ जीवन , आश्चर्यजनक ‘ आनंद का स्रोत ‘ है !
[5]
जरा सोचो
पहले स्वयं ‘सुधरे इंसान’ बनो, फिर दूसरे को ‘सुधारने’ का प्रयास करना,
जिसका ‘ धरातल ‘ ही ‘ सूखा ‘ हो, ‘ हरियाली ‘ केसे लाएगा बता ?
[6]
जरा सोचो
हर ‘लम्हा’ मुस्कुरा कर गुजारिये , ‘ घर ‘ को ‘ कैद ‘ मत समझिए,
इस ‘त्रासदी’ का ‘अंत’ निश्चित है, पुनः ‘खिलखिलाओगे’ एक दिन !
[7]
जरा सोचो
जो ‘परिवर्तनशील’ संसार को समझ लेगा, ‘दुखी’ नहीं होगा,
इस अथाह ‘ सागर ‘ से पार होना आसान नहीं होता !
[8]
जरा सोचो
‘ज्यादा मीठा’ बोलने वाले की गिरहबान में ‘ झांक ‘ कर देखो,
वह शक्तिहीन, अर्थहीन, समर्थहीन, और क्षमा के पात्र ही होंगे !
[9]
जरा सोचो
‘जुल्म’ करके वह खिसक लिए, ‘सुध बुध’ नहीं लेते,
‘ दिले हालात’ मत पूछो, ‘छलनी’ हो गया है आजकल !
[10]
जरा सोचो
‘सब्र’- अमृत समान है, ‘बिगड़े काम’ संभाल लेता है,
‘बेसब्री का मौसम’- ‘फिजाओं ‘को अस्त-व्यस्त रखता है !