[1]
जरा सोचो
जब भी ‘ खालीपन ‘ लगा , ‘ खुद ‘ से मुलाकात होने लगी,
‘जुझारुपन’ के कारण ‘खुद’ को जानने का ‘मौका’ नहीं मिला !
[2]
जरा सोचो
‘तुम सही मैं गलत’ का ‘मंत्र’ ‘चित्त की चिंताओं’ को हर लेगा,
‘जलते अंगारों’ को शांत कर देगा, ‘मंत्रमुग्ध’ कर देगा तुम्हें !
[3]
जरा सोचो
‘नशा-‘ ‘शराब’ का नहीं, जिंदगी ‘ जीने ‘ का होना चाहिए,
‘उम्र के पड़ाव’ को पछाड़ कर, बस ‘दिल’ धड़कना चाहिए !
[4]
जरा सोचो
हर ‘ तपिश ‘ को ‘ झेलने ‘ का मादा होना चाहिए,
‘सूरज’ जितना भी ‘तपे’,’समुद्र’ कभी ‘सूखा’ नहीं करते !
[5]
जरा सोचो
जब ‘जिम्मेदारियां’ बढ़ने लगी, ‘ख्वाहिशों’ पर ‘झुर्रियां’ पड़ने लगी,
‘चौबे जी’- ‘छब्बे जी’ बनने चले थे, ‘दुबे जी’ बन कर रह गए !
[6]
जरा सोचो
जहां ‘ रिश्तों ‘ का ‘ मतलब ‘ ‘ मतलब ‘ के ‘ रिश्ते ‘ हों,
वहां ‘दौलत’ दहकती है, ‘ ईमान’ की ‘कीमत’ नहीं रहती !
[7]
जरा सोचो
‘ खामोशी’ बहुत कुछ ‘बयां’ कर देती है, ‘समझने वाला’ तो हो,
‘चकाचौंध’ के ‘नंबरदार’ हैं सारे, ‘नकली’ को ‘असली’ समझते हैं !
[8]
जरा सोचो
तेरे ‘आंसू’ और ‘गम’ बडे ‘ढीठ’ हैं, अपना ‘पता’ नहीं देते,
‘उन्हें’ कभी का ‘घोट कर’ पी गया होता, तुम्हें ‘हंसा’ देता !
[9]
जरा सोचो
हम जिन्हें ‘खासमखास’ समझते थे, वहां भी ‘थाली में छेद’ था,
‘मतलब’ से ‘दिल’ लगाते थे, ‘जरूरत’ पर ‘खिसकते’ पाए गए सारे !
[10]
जरा सोचो
‘नींदों’ में ‘ख्वाबों का सिलसिला’ सोने नहीं देता,
‘करवट’ बदल- बदल कर हम ‘रातें’ गुजार देते हैं !