[1]
जरा सोचो
‘दिल’ क्या थका, ‘ रिश्ते ‘ और ‘रास्ते’ ‘दोनों खत्म मिले’,
‘दिल’ के जीते ‘जीत’ है , ‘दिल’ हारे तो ‘हार’ है सबकी !
[2]
जरा सोचो
‘सतकारी’ होकर भी ‘रोमांटिक ‘ बने रहना कुछ बुरा नहीं,
‘बढ़ती उम्र’ का एहसास भी ‘परास्त’ नहीं कर पाएगा उसको !
[3]
जरा सोचो
‘उम्र ‘ से बूढा जरूर हूं पर ‘तन’ से पूर्ण ‘स्वस्थ’ हूं,
हर ‘कार्य’ तन्मयता से करता हूं ,थकता नहीं कभी ,
वक्तानुसार ‘ तजुर्बे ‘ में इजाफा करना भूलता नहीं,
‘खाली’ रह कर भी न जाने क्या-क्या ‘सीख’ जाता हूं ?
[4]
जरा सोचो
‘यादों की किताब’ बन कर ‘उम्र’ कट रही है रात दिन,
‘प्रेम सागर’ में ‘गोते’ लगाकर , ‘हम’ क्यों नहीं जी ते ?
‘यादों की किताब’ बन कर ‘उम्र’ कट रही है रात दिन,
‘प्रेम सागर’ में ‘गोते’ लगाकर , ‘हम’ क्यों नहीं जी ते ?
[5]
जरा सोचो
‘खुद’ के प्रति ‘कठोर’, ‘दूसरों’ के प्रति ‘उदार’, ‘सभ्यता’ का प्रारूप है ,
आपका ‘जीवन ‘ समाज हेतु ‘प्रेरणा स्रोत’ बने रहना ‘सदा उत्तम’ !
‘खुद’ के प्रति ‘कठोर’, ‘दूसरों’ के प्रति ‘उदार’, ‘सभ्यता’ का प्रारूप है ,
आपका ‘जीवन ‘ समाज हेतु ‘प्रेरणा स्रोत’ बने रहना ‘सदा उत्तम’ !
[6]
जरा सोचो
रूठ कर ‘ दरवाजे ‘ बंद मत करो , ‘ बंद करो ‘ तो ‘ खिड़की ‘ खुली रखो,
एक दिन ‘मान” जाएगा, ‘गिले -शिकवे’ दूर होंगे,’जिंदगी’ रफ्तार पकड़ लेगी |
रूठ कर ‘ दरवाजे ‘ बंद मत करो , ‘ बंद करो ‘ तो ‘ खिड़की ‘ खुली रखो,
एक दिन ‘मान” जाएगा, ‘गिले -शिकवे’ दूर होंगे,’जिंदगी’ रफ्तार पकड़ लेगी |
[7]
जरा सोचो
देखा है जो सदा ‘दूसरों का मूल्यांकन’ करते हैं, ‘आनंदित’ नहीं रहते,
जो ‘ खुद का मूल्यांकन ‘ करके , ‘आगे’ बढ़ते हैं , ‘दुख’ नहीं उठाते !
देखा है जो सदा ‘दूसरों का मूल्यांकन’ करते हैं, ‘आनंदित’ नहीं रहते,
जो ‘ खुद का मूल्यांकन ‘ करके , ‘आगे’ बढ़ते हैं , ‘दुख’ नहीं उठाते !
[8]
जरा सोचो
‘औरत’ बिकी तो ‘वैश्या’ ,’मर्द’ बिका तो ‘दूल्हा’ , वाह री दुनिया,
देश की यह ‘द्विभाषी तस्वीर’ हर हाल में ‘ चकनाचूर’ होनी चाहिए |
‘औरत’ बिकी तो ‘वैश्या’ ,’मर्द’ बिका तो ‘दूल्हा’ , वाह री दुनिया,
देश की यह ‘द्विभाषी तस्वीर’ हर हाल में ‘ चकनाचूर’ होनी चाहिए |
[9]
जरा सोचो
‘वह’ मेरी ‘ धड़कनों ‘ में समाया है , कैसे कहूं बता ?
चाहे जो ‘घटित’ हो,जुबां पर ‘उसका नाम’ ही छलकता है !
चाहे जो ‘घटित’ हो,जुबां पर ‘उसका नाम’ ही छलकता है !
[10]
जरा सोचो
‘सुमिरन’ मन से करें या न करें , ‘कर्मफल’ मिलता जरूर है,
‘कुकर्मों’ से बचा रहना ही , समाज का ‘स्वयंसेवक’ बना देगा !
‘सुमिरन’ मन से करें या न करें , ‘कर्मफल’ मिलता जरूर है,
‘कुकर्मों’ से बचा रहना ही , समाज का ‘स्वयंसेवक’ बना देगा !