आदरणीय श्री थिरुवल्लवुर जी –दक्षिण भारत के बहुत बड़े नीतिशास्त्र के जानकार रहे हैं ।
प्रस्तुत है उनके हिन्दी में अनुदित दोहे ।
अक्षर सबके आदि में , है अकार का स्थान ।
अखिल लोक का आदि तो , रहा आदि भगवान ॥
विद्योपार्जन भी भला , क्या आयेगा काम ।
श्रीपद पर सत्याज्ञ के , यदि नहिं किया प्रणाम ॥
हृदय -पद्म्-गत ईश के , पाद-पद्मज जो पाय ।
श्रेयस्कर वरलोक में , चिरजीवी रह जाय ॥
जो रहते हैं ईश के , सत्य भजन में लिप्त ।
अज्ञानाश्रित कर्म दो , उनको करें न लिप्त
पंचेन्द्रिय -निग्रह किये , प्रभु का किया विधान ।
धर्म-पंथ के पथिक जो , हों चिर आयुष्मान ॥
ईश्वर उपमा रहित का, नहीं पदाश्रय -युक्त ।
तो निश्चय संभव नहीं , होना चिन्ता-मुक्त ॥
धर्म-सिन्धु करुणेश के , शरणागत है धन्य ।
उसे छोड दुख-सिन्धु को , पार न पाये अन्य ॥
निष्क्रिय इन्द्रिय सदृश ही , ‘सिर’ है केवल नाम ।
अष्टगुणी के चरण पर , यदि नहिं किया प्रणाम ॥
भव-सागर विस्तार से , पाते हैं निस्तार ।
ईश-शरण बिन जीव तो , कर नहीं पाये पार ॥
गृहिणी- गुणगान प्राप्त कर , पुरुष-आय अनुसार ।
जो गृह-व्यय करती वही , सहधर्मिणी सुचार ॥
गुण-गण गृहणी में न हो, गृह्य-कर्म के अर्थ ।
सुसंपन्न तो क्यों न हो , गृह-जीवन है व्यर्थ ॥
गृहिणी रही सुधर्मिणी , तो क्या रहा अभाव ।
गृहिणी नहीं सुधर्मिणी , किसका नहीं अभाव ॥
स्त्री से बढ़ कर श्रेष्ठ ही , क्या है पाने योग्य ।
यदि हो पतिव्रत की , दृढ़ता उसमें योग्य ॥
पूजे सती न देव को , पूजे जग निज कंत ।
उसके कहने पर ‘बरस ’, बरसे मेघ तुरंत ॥
रक्षा करे सतीत्व की , पोषण करती कांत ।
गृह का यश भी जो रखे , स्त्री है वह अश्रांत ॥
परकोटा पहरा दिया , इनसे क्या हो रक्ष ।
स्त्री हित पतिव्रत् ही , होगा उत्तम रक्ष ॥
यदि पाती है नारियाँ , पति पूजा कर शान ।
तो उनका सुरधाम में , होता है बहुमान ॥
जिसकी पत्नी को नहीं , घर के यश का मान ।
नहिं निन्दक के सामने , गति शार्दूल समान ॥
गृह का जय मंगल कहें , गृहिणी की गुण-खान ।
उनका सद्भूषण कहें , पाना सत सन्तान |
जो मुंह से तत्वज्ञ के , हो कर निर्गत शब्द ।
प्रेमाशक्त निष्कपट हैं , मधुर वचन वे शब्द ॥
मन प्रसन्न हो कर सही , करने से भी दान ।
मुख प्रसन्न भाषी मधुर , होना उत्तम मान ॥
ले कर मुख में सौम्यता , देखा भर प्रिय भाव ।
बिना ह्रदय मृदु वचन , यही धर्म का भाव ॥
दुख-वर्धक दारिद्र्य भी , छोड़ जायगा साथ ।
सुख-वर्धक प्रिय वचन यदि , बोले सब के साथ ॥
मृदुभाषी होना तथा , नम्र-भाव से युक्त ।
सच्चे भूषण मनुज के , अन्य नहीं है उक्त ॥
होगा ह्रास अधर्म का , सु-धर्म का उत्थान ।
चुन-चुन कर यदि शुभ वचन , कहे मधुरता- मान |
मधुर शब्द संस्कार-युत , पर को कर वरदान ।
वक्ता को नव -नीति दे , करता पुण्य प्रदान ॥
ओछापन से रहित जो , मीठा वचन प्रयोग ।
लोक तथा परलोक में , देता है सुख-भोग ॥
मधुर वचन का मधुर फल , जो भोगे खुद आप ।
कटु वचन फिर क्यों कहे , जो देता संताप ॥
रहते सुमधुर वचन के , कटु कहने की बान ।
यों ही पक्का छोड़ फल , कच्चा ग्रहण समान |
उपकृत हुए बिना करे , यदि कोइ उपकार ।
दे कर भू , सुर-लोक भी , मुक्त न हो आभार ॥
संकट के समय पर , किया गया उपकार ।
भू से अधिक महान है अति, यद्यपि अल्पाहार ॥
स्वार्थ रहित मदद का, यदि गुण आंका जाय ।
उदधि- बड़ाई से बड़ा , वह गुण माना जाय ॥
उपकृति तिल भर ही हुई , तो भी उसे सुजान ।
मानें ऊँचे ताड़ सम , सुफल इसी में जान ॥
सीमित नहिं , उपकार तक, प्रत्युपकार – प्रमाण ।
जितनी उपकृत- योग्यता , उतना उसका मान ॥
निर्दोषों की मित्रता , कभी न जाना भूल ।
आपद- बंधु स्नेह को , कभी न तजना भूल ॥
जिसने दुःख मिटा दिया , उसका स्नेह स्वभाव ।
सात जन्म तक भी स्मरण , करते महानुभाव ॥
भला नहीं है भूलना , जो भी हो उपकार ।
भला यही झट भूलना , कोई भी अपकार ॥
हत्या सम कोई करे , अगर बड़ी कुछ हानि ।
उसकी इक उपकार -स्मृति , करे हानि की हानि ॥
जो भी पातक नर करें , संभव है उद्धार ।
पर है नहीं कृतघ्न का , संभव ही निस्तार ॥
मध्यस्थता यथेष्ट है , यदि हो यह संस्कार ।
शत्रु मित्र औ’ अन्य से , न्यायोचित व्यवहार ॥
न्यायनिष्ठ की संपदा , बिना हुए क्षयशील ।
वंश वंश का वह रहे , अवलंबन स्थितिशील ॥
तजने से निष्पक्षता , जो धन मिले अनन्त ।
भला – भले ही वह करे , तजना उसे तुरन्त ॥
कोई ईमानदार है , अथवा वह बेईमान ।
उन उनके अवशेष से , होती यह पहचान ॥
संपन्नता विपन्नता , इनका है न अभाव ।
सज्जन का भूषण रहा , न्यायनिष्ठता भाव ॥
सर्वनाश मेरा हुआ , यों जाने निराधार ,
चूक न्याय-पथ यदि हुआ , मन में बुरा विचार ॥
न्यायवान धर्मिष्ठ की , निर्धनता अवलोक ।
मानेगा नहिं हीनता , बुद्धिमान का लोक ॥
सम रेखा पर हो तुला , ज्यों तोले सामान ।
भूषण महानुभाव का , पक्ष न लेना मान ॥
कहना सीधा वचन है , मध्यस्थता ज़रूर ।
दृढ़ता से यदि हो गयी , चित्त- वक्रता दूर ॥
यदि रखते पर माल को, अपना माल समान ।
वणिक करे वाणीज्य तो , वही सही तू जान ॥
संयम देता मनुज को , अमर लोक का वास ।
झोंक असंयम नरक में , करता सत्यानास ॥
संयम की रक्षा करो , निधि अनमोल समान ।
श्रेय नहीं है जीव को , उससे अधिक महान ..॥
कोई संयम-शील हो, अगर जान कर तत्व ।
संयम पा कर मान्यता , देगा उसे महत्व ॥
बिना टले निज धर्म से , जो हो संयमशील ।
पर्वत से भी उच्चतर , होगा उसका डील ॥
संयम उत्तम वस्तु है , जन के लिये अशेष ।
वह भी धनिकों में रहे, तो वह धन सुविशेष ॥
चाहे औरों को नहीं , रख लें वश में जीभ ।
शब्द-दोष से हों दुखी , यदि न वशी हो जीभ ॥
एक बार भी कटु वचन , पहुँचाये यदि कष्ट ।
सत्कर्मों के सुफल सब , हो जायेंगे नष्ट ॥
घाव लगा जो आग से , संभव है भर जाय ।
चोट लगी यदि जीभ की , कभी न मेटी जाय ॥
क्रोध दमन कर जो हुआ , पंडित वही समर्थ ।
धर्म -देव भी जोहता , बाट भेंट के अर्थ ॥
बुद्धिमान सन्तान से , बढ़ कर विभव सुयोग्य ।
हम तो मानेंगे नहीं , हैं पाने के योग्य ॥
सात जन्म तक भी उसे , छू नहिं सकता ताप ।
यदि पावे संतान जो , शीलवान निष्पाप ॥
निज संतान -सुकर्म से , स्वयं धन्य हों जान ।
अपना अर्थ सुधी कहें , है अपनी संतान ॥
नन्हे निज संतान के , हाथ विलोड़ा भात ।
देवों के भी अमृत का , स्वाद करेगा मात ॥
निज शिशु अंग-स्पर्श से, तन को है सुख-लाभ ।
टूटी- फूटी बात से , श्रुति को है सुख-लाभ ॥
मुरली-नाद मधुर कहें , सुमधुर वीणा-गान ।
तुतलाना संतान का , जो न सुना निज कान ॥
पिता करे उपकार यह , जिससे निज संतान ।
पंडित -सभा -समाज में , पावे अग्र-स्थान ॥
विद्यार्जन संतान का , अपने को दे तोष ।
उससे बढ़ सब जगत को , देगा वह संतोष ॥
पुत्र जनन पर जो हुआ , उससे बढ़ आनन्द ।
माँ को हो जब वह सुने , महापुरुष निज नन्द ॥
पुत्र पिता का यह करे , बदले में उपकार ।
`धन्य- धन्य इसके पिता’ , यही कहे संसार ॥
योग-क्षेम निबाह कर , चला रहा घर-बार ।
आदर करके अतिथि का , करने को उपकार ॥
बाहर ठहरा अतिथि को , अन्दर बैठे आप ।
देवामृत का क्यों न हो , भोजन करना पाप ॥
दिन दिन आये अतिथि का , करता जो सत्कार ।
वह जीवन दारिद्रय का , बनता नहीं शिकार ॥
मुख प्रसन्न हो जो करे , योग्य अतिथि-सत्कार ।
उसके घर में इन्दिरा , करती सदा बहार ॥
खिला पिला कर अतिथि को, अन्नशेष जो खाय ।
ऐसों के भी खेत को , काहे बोया जाय ॥
प्राप्त अतिथि को पूज कर , और अतिथि को देख ।
जो रहता , वह स्वर्ग का , अतिथि बनेगा नेक ॥
अतिथि-यज्ञ के सुफल की , महिमा का नहिं मान ।
जितना अतिथि महान है , उतना ही वह मान ॥
‘कठिन यत्न से जो जुड़ा , सब धन हुआ समाप्त ‘ ।
यों रोवें , जिनको नहीं , अतिथि- यज्ञ -फल प्राप्त ॥
निर्धनता संपत्ति में , अतिथि- उपेक्षा जान ।
मूर्ख जनों में मूर्ख यह , पायी जाती बान ॥
सूंघा ‘अनिच्च’ पुष्प को , तो वह मुरझा जाय ।
मुँह फुला कर ताकते , सूख अतिथि- मुख जाय ॥