Home ज़रा सोचो “डगमगाओ नहीं, स्नेही बनो,सत्संगी बनो,पाखंड से बचो , प्रभु सिमरण करते रहो ‘|

“डगमगाओ नहीं, स्नेही बनो,सत्संगी बनो,पाखंड से बचो , प्रभु सिमरण करते रहो ‘|

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[1]

‘हम  तो  हार  को- जीत  की  ओर  का  प्रथम  चरण  मानते  हैं ,
‘बार-बार उस  रास्ते  को  ढूंढते  हैं, ‘जहां  मंजिल  निवास  करती  है’ |

[2]

‘हम  अधूरे  मन  से  या  आधी -अधूरी  प्यास  से, संतों  से  मिलते  हैं,
‘मन  कोळाहलों  से  भरा  रहेगा, ‘सही  उपासना  कर  ही  नहीं  सकते’ !

[3]

‘इच्छाओं  में  रचे  बसे  रहे  तो, ‘दुख ,चिंता, रोग, समस्या, अवश्यंभावी  है,
‘ सुख  केवल  भ्रांति  है , धनबल , जनबल , बाहुबल ,  धरे  रह  जाएंगे ‘ !

[4]

‘ जैसे  फूल , फल , ऋतु , नदी , हवाओं  में , मिठास  महसूस  होती  है,
‘हमारी बातचीत, उठना, बैठना, आना-जाना, ‘मधुरता’ से  युक्त  होना  चाहिए’ !

[5]

‘स्नेही  लोग’ किसी  को  ठुकराते  नहीं, गले  लगा  कर  चलते  हैं,
‘खुदगर्जिया  और  लालसायें, ‘कभी  उनका  रास्ता  रोक  नहीं  पाती’ !

[6]

‘घर  में  बैठे  कहते  रहे, ‘सर्दी  बहुत  है’, ‘सर्दी  ही  खा जाएगी तुझको,
‘ खुले  आकाश  में  पंख  फैलाते , ‘ नसों  में  रवानी  दौड़ने  लगती ‘ !

[7]

‘ जिसकी  एकाग्रता  डगमगाई ,’ लक्ष्य  से  चूका , फिसळेगा  जरूर ,
‘ उत्साह’ ढीळा  नहीं  पड़ा, ‘कोशिश’ करता  रहा, तो ‘मंजिल’ भी  प्राप्त  कर  लेगा’ !

[8]

‘आदमी  ही  आदमी  को  डसने  को  तैयार  बैठा  है,
‘विषैलापन  बढ़  गया  है,
‘निर्मलता , स्नेह , शुकराने  का  भाव,
‘आंखों  से  ओझल  से  लगते  हैं’ !

[9]

‘अंतर्मन  बड़ा  दुखी  है, हर  कोई  पाखंड  में  रत  है, सिर्फ दिखावा  है,
‘संतोष  धन’  कहीं  नहीं  मिलता, ‘चौतरफा  ‘प्रपंच  ही  प्रपंच’  है’ !

[10]

‘प्रभु, मंगलकर्ता, अमंगल हर्ता, विघ्नहर्ता, ऐश्वर्य  प्रदाता, स्वरूप  है,
‘विद्या ,बुद्धि ,सहनशीलता ,विवेक , वैराग्य,सब  उन्हीं  की  बदौलत  है’ !

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