[1]
जरा सोचो
बिना जरूरत घर से बाहर न निकलें , आजकल ,’हवा’ बड़ी जहरीली है,
‘ पडौस ‘ से भी गुजरी तो भी ‘ बेनिहाल ‘ करके दम लेगी ,
तुम ‘सलामत’ रहो , ‘जिंदगी’ नेमत है , संभाल कर रखिए ,
घर में दिल बहलाने के ‘अनेकों फसाने ‘ हैं, सिर्फ तसल्ली चाहिए !
[2]
जरा सोचो
‘जीवन’ मन के अनुसार नहीं होता,’बनाने का प्रयास’ जारी रख,
‘जीवन’ मन के अनुसार नहीं होता,’बनाने का प्रयास’ जारी रख,
‘आनंदमय क्षणों’ का उसमें प्रवेश , सारी ‘ कटुतायें ‘ उड़ा देगा !
[3]
जरा सोचो
‘टांग’ खींचने वालों की कमी नहीं, ‘सफलता की सीढ़ियां’ फिर भी चढो,
‘चढ’ गए तो बल्ले बल्ले ,’ रह ‘ गए तो पुनः ‘ प्रयास ‘ ही उत्तम विधा !
‘टांग’ खींचने वालों की कमी नहीं, ‘सफलता की सीढ़ियां’ फिर भी चढो,
‘चढ’ गए तो बल्ले बल्ले ,’ रह ‘ गए तो पुनः ‘ प्रयास ‘ ही उत्तम विधा !
[4]
जरा सोचो
जाति , धर्म , संप्रदाय , ‘ गौण ‘ समझ कर ही जिएं ,
‘संकीर्णता’ की श्रेणी से उभरें, तभी ‘उज्जवल भविष्य’ की गारंटी है !
जाति , धर्म , संप्रदाय , ‘ गौण ‘ समझ कर ही जिएं ,
‘संकीर्णता’ की श्रेणी से उभरें, तभी ‘उज्जवल भविष्य’ की गारंटी है !
[5]
जरा सोचो
‘उदासी’ कभी किसी की नहीं हुई, ‘जिंदा दिल’ भी ‘मरे दिल’ से लगते हैं,
‘खुशियां’ बांटनी शुरु तो करो , तेरे दर पर भी ‘दस्तक’ जरूर दे देंगी !
‘उदासी’ कभी किसी की नहीं हुई, ‘जिंदा दिल’ भी ‘मरे दिल’ से लगते हैं,
‘खुशियां’ बांटनी शुरु तो करो , तेरे दर पर भी ‘दस्तक’ जरूर दे देंगी !
[6]
जरा सोचो
माना ‘रिश्तों का अहसास’ मर गया है, ‘दुनियां’ बेगानी सी है,
‘कुछ ऐसा करो’ जब ‘दुनियां’ खिलाफ हो, ‘कोई तो साथ हो तेरे’ !
माना ‘रिश्तों का अहसास’ मर गया है, ‘दुनियां’ बेगानी सी है,
‘कुछ ऐसा करो’ जब ‘दुनियां’ खिलाफ हो, ‘कोई तो साथ हो तेरे’ !
[7]
जरा सोचो
‘सोने की सीढ़ी’ पर चढ, चाहे ‘हीरों का शहंशाह’ बन,
‘अन्त समय’- ‘मुट्ठी भर राख’ की औकात है तेरी !
‘सोने की सीढ़ी’ पर चढ, चाहे ‘हीरों का शहंशाह’ बन,
‘अन्त समय’- ‘मुट्ठी भर राख’ की औकात है तेरी !
[8]
जरा सोचो
हमारे कर्म, व्यवहार और सोच, ‘सच्चे सहचरी’ ही मिलते हैं,
इन्हें ‘तिलांजलि’ देकर ‘कायदे- आजम’ बनने की ‘कोशिश’ न कर !
हमारे कर्म, व्यवहार और सोच, ‘सच्चे सहचरी’ ही मिलते हैं,
इन्हें ‘तिलांजलि’ देकर ‘कायदे- आजम’ बनने की ‘कोशिश’ न कर !
[9]
जरा सोचो
‘नाम’ के आगे ‘जी’ और ‘रोटी’ पर ‘घी’ लगाने का ‘आनंद’ ही कुछ और है,
‘ अतिथि ‘ ‘ मन – मुग्ध ‘ रहता है, ‘स्नेह की वर्षा’ कभी रुकती नहीं !
‘नाम’ के आगे ‘जी’ और ‘रोटी’ पर ‘घी’ लगाने का ‘आनंद’ ही कुछ और है,
‘ अतिथि ‘ ‘ मन – मुग्ध ‘ रहता है, ‘स्नेह की वर्षा’ कभी रुकती नहीं !
[10]
जरा सोचो
‘अपनों’ के लिए ‘दिल’ ,’हथेली’ पर रख दिया,
सुनने को मिला, क्या किया है आज तक तुमने ?
करने वालों की ‘तकदीर’ में ‘थपेडे ही थपेड़े’ हैं,
फिर भी ‘कर्मकार’ बनकर जीना ही सदा उत्तम !