हमारे देश मे कालांतर से एक परम्परा चली आ रही है कि लोग एक दूसरों को उपदेश बहुत देते हैं | आदमी चाहे खुद खड्डे में पड़ा हो , विचलित हो परंतु दूसरों को मुसीबत से दूर रहने के उपाय बताने में कभी नहीं चूकता | ओर तो ओर दूसरों कि आलोचना करने में भी कभी नहीं चूकता |
उदाहरण महाभारत से ले सकते हैं | भगवान श्री कृष्ण और शिशुपाल रिस्ते में भाई-भाई थे | लेकिन शिशुपाल हमेशा श्री कृष्ण जी कि मतलब या बेमतलब आलोचना करने में ही लगा रहता था और कई बार उसने सारी हदें भी पार कर दी थी और कटु-शब्द या कहिए अपशब्द भी बोल देता था | परिणाम यह निकला कि भगवान श्री कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका अंत कर दिया था | इससे हमें यह संदेश मिलता है कि “ सदा उपदेश व आलोचना एक उचित दायरे में ही उचित रहती है “ संसार में सीमा से पार दूसरों को उपदेश देने वाले बहुत हैं |
यदि वास्तव में सुख कि अनुभूति चाहिए तो उपदेश देने कि बजाय , लिखे हुए उपदेशों का पालन करना सीखना चाहिए | उपदेशक नहीं मार्गदर्शक बनों | महाभारत में भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन के मार्गदर्शक बने थे , नजीतनन संसार में अर्जुन-श्री कृष्ण संवाद एक प्रेरणा के श्रोत बने हुए हैं |
‘अपने जीवन में पढ़ाई-लिखाई हो, व्यापार हो या जीवन-चिंतन , सदा ध्यान रक्खो ,किसी को उपदेश देने की बजाये सामने वाले से मार्ग-दर्शन लीजिये |यदि सच्चा मार्ग-दर्शक मिल गया तो आप सफलता के झंडे गाड़ सकते हो’ |
‘कभी उपदेश के पीछे मत भागिए बल्कि अच्छे गाइड { मार्ग-दर्शक } को तलासिये , उसकी बात मानिए , निश्चित रूप से परिणाम सुखदायी होंगे ‘ |