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“आध्यात्म ! अंतर्गत और बाहर की यात्रा “-प्रेरणादायक प्रसंग !

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अन्तर्यात्रा

जापान  में  एक  झेन  फकीर  को  कुछ  मित्रों  ने  भोजन  पर  बुलाया  था।  सातवीं  मंजिल  के  मकान  पर  भोजन  कर  रहे  हैं ,                                         अचानक   भूकंप  आ  गया ।  सारा  मकान  कांपने  लगा ।

भागे  लोग। 
कोई  पच्चीस-तीस  मित्र  थे ।
सीढ़ियों  पर  भीड़  हो  गयी ।
जो  मेजबान  था  वह  भी  भागा ।

लेकिन  भीड़  के  कारण  अटक  गया  दरवाजे  पर ।  तभी  उसे  ख्याल  आया  कि  मेहमान  का  क्या  हुआ ?

लौट कर  देखा ,  वह  झेन  फकीर  आंख  बंद  किये  अपनी  जगह  पर  बैठा  है  -जैसे  कुछ  हो  ही  नहीं  रहा !  मकान  कंप  रहा  है ,                                            अब  गिरा  तब  गिरा ।  लेकिन  उस  फकीर  का  उस  शांत  मुद्रा  में  बैठा  होना ,  कुछ  ऐसा  उसके  मन  को  आकर्षित  किया , कि                                         उसने   कहा ,  अब  जो  कुछ  उस  फकीर  का  होगा  वही  मेरा  होगा।  रुक  गया ।

कांपता   था , घबड़ाता  था,  लेकिन  रुक  गया ।  भूकंप  आया , गया ।  कोई  भूकंप  सदा  तो  रहते  नहीं ।  फकीर  ने  आंख  खोली ,                                            जहां  से  बात  टूट  गयी  थी  भूकंप  के  आने  से ,  वहीं  से  बात  शुरू  की ।

लेकिन   मेजबान  ने  कहा  :  मुझे  क्षमा  करें ,  मुझे  अब  याद  ही  नहीं  कि  हम  क्या  बात  करते  थे ।  बीच  में  इतनी  बड़ी  घटना                                          घट  गयी  है  कि  सब  अस्त-व्यस्त  हो  गया । 
अब  तो  मुझे  एक  नया  प्रश्न  पूछना  है ।  हम  सब  भागे ,  आप  क्यों  नहीं  भागे ?

उस  फकीर  ने  कहा तुम  गलत  कहते  हो ।  तुम  भागे ,  मैं  भी  भागा ।  तुम  बाहर  की  तरफ  भागे ,  मैं  भीतर  की  तरफ  भागा ।                                तुम्हारा  भागना  दिखाई  पड़ता  है ,  क्योंकि  तुम  बाहर  की  तरफ  भागे ।  मेरा  भागना  दिखाई  नहीं  पड़ा  तुम्हें  लेकिन  अगर  गौर                                         से  तुमने  मेरा  चेहरा  देखा  था ,  तो  तुम  समझ  गये  होगे  कि  मैं  भी  भाग  गया  था ।

मैं   भी   यहां   था   नहीं ,  मैं  अपने  भीतर  था ।  और  मैं  तुमसे  कहता  हूं  की   मैं  ही  ठीक  भागा । ,  तुम  गलत  भागे ।  यहां  भी  भूकंप                                 था  और  जहां  तुम  भाग  रहे  थे  वहां  भी  भूकंप  था ।  बाहर  भागोगे  तो  भूकंप  ही  भूकंप  है ।

मैं  ऐसी  जगह  अपने  भीतर  भागा ।  जहां  कोई  भूकंप  कभी  नहीं  पहुंचता  है ।  मैं  वहां  निश्चित  था । 
मैं  बैठ  गया  अपने  भीतर  जा कर  । 
अब  बाहर   जो   होना   हो   हो । 
मैं  अपने  अमृत -गृह   मैं   बैठ   गया ,  जहां  मृत्यु  घटती  ही  नहीं । 
मैं  उस  निष्कंप  दशा  में  पहुंच  गया ,  जहां  भूकंपों  की  कोई  बिसात  नहीं ।

अगर  तुम्हें  बाहर  का  जोखिम  दिखाई  पड़  जाये  तो  तुम्हारे  जीवन  में  अंतर्यात्रा  शुरू  हो  सकती  है ।

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